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॥ हस्तामलक स्तोत्रं॥

हस्तामलक स्तोत्रं॥

घनच्छन्न दृष्टिर्घनच्छन्नमर्कं,
यथा निष्प्रभं मन्यते चातिमूढ़ः।
तथा बद्धवदभाति यो मूढ़दृष्टे:,
स नित्योपलब्धिस्वरुपोऽहमात्मा ॥१२

जिस प्रकार बादलों से रुकी हुई द्रष्टि के कारण अत्यंत मोहित व्यक्ति सूर्य को छिपा हुआ मानता है, उसी प्रकार जो विवेकहीन द्रष्टि से बंधा हुआ सा दिखाई देता है, मैं सनातन, निरंतर विद्यमान रहने वाला, वह ज्ञानस्वरुप आत्मा हूँ॥१२॥

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