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|| हस्तामलक स्तोत्रं ||

मुखाभासको दर्पणे दृश्यमानो,
मुखत्वात्पृथक्त्वेन नैवास्ति वस्तु।
चिदाभासको धीषु जीवोऽपि तद्वत्,
स नित्योपलब्धिस्वरुपोऽहमात्मा ॥5

जिस प्रकार मुख की छाया ही शीशे में दिखाई देती है, मुख के हटने पर कुछ भी दिखाई नहीं देता उसी प्रकार चेतना भी जीवरूपी छाया जैसे बुद्धि में प्रतिबिंबित होती है, मैं सनातन, निरंतर विद्यमान रहने वाला, वह ज्ञानस्वरुप आत्मा हूँ॥५॥

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