|| हस्तामलक स्तोत्रं ||
यथा सूर्य एकोऽप्स्वनेकश्चलासु,
स्थिरास्वप्यनन्यद्विभाव्यस्वरूपः।
चलासु प्रभिन्नासु धीष्वेवमेकः,
स नित्योपलब्धिस्वरुपोऽहमात्मा ॥११॥
जिस प्रकार स्वयं स्थिर होते हुए भी एक सूर्य चंचल जल में अनेक भागों में बँटा दिखाई देता है, लेकिन स्थिर जल में सभी बँटे हुए भाग एक सूर्य में मिल जाते हैं , उसी प्रकार जोएक होते हुए भी अनेक बुद्धियों में अनेक दिखाई देता है, मैं सनातन, निरंतर विद्यमान रहने वाला, वह ज्ञानस्वरुप आत्मा हूँ॥११॥
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