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॥ हस्तामलक स्तोत्रं॥

हस्तामलक स्तोत्रं॥

उपाधौ यथा भेदता सन्मणीनां,
तथा भेदता बुद्धिभेदेषु तेऽपि।
यथा चन्द्रिकाणाम् जले चंचलत्वं,
तथा चंचलत्वं तवापीह विष्णो ॥१४

जिस प्रकार मणियों में भेद उनके आकार-प्रकार के कारण होता है, वस्तुतः नहीं, उसी प्रकार आप में भेद बुद्धि की भिन्नता के कारण ही दिखाई देता है। जिस प्रकार जल की चंचलता के कारण अनेक चन्द्र प्रतिबिम्ब चलायमान दिखते हैं उसी प्रकार हे सर्वव्यापक प्रभु आपमें भी चंचलता प्रतीत होती है॥१४॥

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