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|| हस्तामलक स्तोत्रं ||

यमग्न्युष्णवन्नित्यबोधस्वरूपं,
मनश्चक्षुरादीन्यबोधात्मकानि।
प्रवर्तन्त आश्रित्यनिष्कंपमेकं,
स नित्योपलब्धिस्वरुपोऽहमात्मा ॥४॥

जिसका अग्नि की उष्णता के समान अनवरत बोध होता है, जो स्वयं स्थिर रह कर अकेले ही मन, चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों को कार्यशील बनाता है, मैं सनातन, निरंतर विद्यमान रहने वाला, वह ज्ञानस्वरुप आत्मा हूँ ॥४॥

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