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|| हस्तामलक स्तोत्रं ||

यथा दर्पणाभाव आभासहानो,
मुखं विद्यते कल्पनाहीनमेकं।
तथा धीवियोगे निराभासको यः,
स नित्योपलब्धिस्वरुपोऽहमात्मा ॥६॥

जिस प्रकार शीशे के हटने पर छाया विलुप्त हो जाती है और अकल्पनीय मुख विद्यमान रहता है उसी प्रकार बुद्धि के हटने पर जीव रुपी प्रतिबिम्ब रहित चेतना विद्यमान रहती है, मैं सनातन, निरंतर विद्यमान रहने वाला, वह ज्ञानस्वरुप आत्मा हूँ॥६॥

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