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|| हस्तामलक स्तोत्रं ||

|| हस्तामलक स्तोत्रं ||

विवस्वत् प्रभातं यथारूपमक्षं,
प्रगृण्हाति नाभातमेवं विवस्वान्।
यदाभात आभासयत्यक्षमेकः,
स नित्योपलब्धिस्वरुपोऽहमात्मा ॥१०

जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में आँख अनेक प्रकार के रूपों में सूर्य के प्रकाश को ही देखती है, उसी प्रकार जिसके प्रकाश में आँखें एक(ब्रह्म) को देखती हैं, मैं सनातन, निरंतर विद्यमान रहने वाला, वह ज्ञानस्वरुप आत्मा हूँ॥१०॥

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